Thursday, September 12, 2013

YESTERDAY & TODAY

येस्टर्डे एंड  टुडे

दिन कुछ ऐसे गुज़रा

कल बिजली नहीं थी, मानो ज़िंदगी थम सी गयी हो. बारिश भी खूब हो रही है. कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. सोचा समय का सदउपयोग किया जाये, सफ़ाई कर ली जाए. झाड़ू पोचे और सफ़ाई अभियान के अंतर्गत तमाम ताम झाम के मोईने के बाद, थक गया था. चलते, फिरते, घूमते, झूमते -  इस उठक बेठक के बाद सोचा थोड़ा आराम कर लिया जाए. यूँ ही ज़हन मैं अचानक कहीं से ये गीत आया और में गुन गुनाने लगा - "मुझे कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते...मुझे कोई"... और मैं ठोड़ी देर के लिए सो गया. कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला.

खली पेट भजन ना होए गोपाला, "गोपाला गोपाला, मेरे प्यारे गोपाला". भूख लग रही थी, पेट में चूहे कूद रहे थे. खुद से खूब विचार विमर्श क्व्र्ने के बाद डिसिजन लिया की आज बाहर से खाना मँगवाया जाये. बड़े दिन हो चुके थे साउथ इंडियन खाए, तो सोचा आज खुद को किचन से और किचन को खुद से आराम दीया जाए और सागर रत्ना से डोसा ओर्डर कर लिया जाये. महंगा ही सही, कोन्सा रोज़ रोज़ होता है.

"ठंडी हवाएँ लहरा के आयें...ठंडी हवाएँ". शुकर है लाइट आ चुकी थी, और मैं एयर कंडिशनर के नीचे रिमोट से खेलते हुए सोच रहा था, गर्मी का मौसम है और अगर एयर कंडिशनर यूँ ही चलता रहा तो बिजली का बिल खूब आयेगा...बिजलि रही तो. आज ज़्यादा चला है, अब मुझे रिमोट छुपा कर रख देना चाहिए. या सेल निकाल कर. अब संभल कर चलाऊँगा. आज खाने का भी महँगा ओर्डर किया है, बचे कूचे से पेट भर लिया जायेगा एक आद या दो दिन. हो जाएगी गुज़र बसर.

जगजीत सिंह की गायी ग़ज़ल याद आ गयी - "दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है, आख़िर ईस दर्द की दवा क्या है. मैं भी मुह में ज़बान रखता हूँ, काश पूछो की मुद्दा क्या है".

बिजली के बिल और खर्च की चिंता, गर्मी और बारिश से परेशान - ज़िंदगी की जगतो जहत्‌ में उलझा, घबराया मन. सुलगा, गीला तन.

अचानक अंदर से मानो आवाज़ आई - क्यों व्यर्थ चिंतन कर रहे हो, कुछ लेते क्यों नहीं? फ़िर क्या था -  दिल सोच ही बैठा फ़िर से, कह ही दाला खुद से - आज कुछ मीठा हो जाए.  बड़े कदम फ्रिज की और मानो कोई डोर खींच रही हो. आइस-क्रीम पिंगल चुकी थी, जिसको में मिल्क शेक समझ कर गटक गया. एसी बंद है, पंखे के नीचे हूँ, खाने की डिलिवरी के इंतज़ार में कान खोल कर, घंटी की आवाज़ सुनने को बेकरार बेताब बैठा. मेज़ पर बर्तन सजा दालें हैं, पैसों के खुले चिलर और नॉट टटोल ही रहा था की बज़ी घंटी. दरवाज़े की और कदम बड़ाए, मन ही मन मुस्कुराए, तसबुर्रे इन्तेज़ार में जो थे मस्रूफ, भूख से थे जो महरूम पल अब खड़े झुन झुनाए. मानो  अनगिनत कलियां खिल गई हों. उल्लसित उमंग से परिपूर्ण उत्तेजित बेठक लगाए, नज़रें गड़ाए - खोल पिटारा फकीरा तेरा भोजन आए. दिल ललचाए, अब रहा ना जाए. खाते खाते सकूँ इस दिल को आए. मानो जान में जान आई. पेट भर चुका था, कुछ ज़्यादा ही खा लिया शायद, अब मैं एक छोटी सी वाल्क को निकला जाए.

कानों पर ईअरफोन लगाए - "डीजे वाले बाबू मेरा गाना बजा दे".

बारिश के बाद मौसम हसीन गमगीन हो चुका था, गीली सड़कें और वह मिट्टी की भीनी भीनी खुशबू, मानो कोई जादू सा, अरमां दिल मैं जगाए. नयी पुरानी अनगिनत बातें, चिंतन से हुईं नमकीन आंखें, संजीदा उदास और व्यंग से परिपूर्ण ओतप्रोत नत्क्खट कह्कहे, हँसी ठिठोली दिल में सजाए. कुछ देर घूमने के बाद, कदम वापिस घर की और हो लिए.

ठोड़ी देर इंटरनेट पर वक़्त बिताया. लैपटॉप पर कुछ काम किया 

रात हो चुकी थी. फ़िर एक नयी सी सपनों भरी दुनिया में खोने को तैयार, बिस्तर पर जाने से पहले कूलर को उस रुम से इस रुम मैं लाया, पानी भरा, जो बाहर गिरा उसको साफ़ किया. शरीर जैसे बिस्तर को देख कर ही मानो थका और चूर महसूस कर रहा हो. शरीर जवाब दे चुका था पर दिमाग  उँगलियों पर कुछ हिसाब किताब अभी भी जारी था.  और बस कुछ देर भर की ही बात थी, की आंखें बंद हो रहीं थी.

आज भी आधा दिन कुछ ऐसे ही गुज़रा, बारिश और बिना बिजली के. बारिश अभी भी बरस रही थी. बारिश और तूफ़ान की वजह से पोल की तार हिल गई थी. दो घंटे लगभग लगे होंगे ठीक होने में. चाय बना कर पिलायी मैंने उन तीन लोगों को जो कम्प्लेन्ट करने पर वाईरिंग ठीक करने आए थे.

पानी पानी हो रखा था सब जगह,घर के बाहर और घर के अंदर. मैं वाइपर लेकर लग गया सफ़ाई में. सुबह से दोपहर हो चली थी और अभी तक पेट मैं भी कुछ गया नही था. भूख और प्यास लग रही थी.  एनर्जी ड्रिंक (कोल्ड कॉफ़ी) पी ली है  और थोड़ी बना के रख दी है फ्रिज मैं. नहा लिया और सोचा कल की सामबर और चटनी पड़ी है, इडली बना ली जाए. वोही बची कूची रात को डिनर में इस्तेमाल हो जायेगी.

ऑनलाइन बेठ कर कुछ चीज़ें चेक कर रहा था और जो पैकेट डिलिवर होने थे उनका इंतज़ार. आधे घंटे पहले ही एक पार्सल डिलिवर हुआ था (ऑनलाइन शॉपिंग) वोही खोल कर देख रहा था, अभी और आने बाकी हैं. एक वापिस चला गया आज क्योंकि मैं फोन नहीं उठा पाया और ना ही कॉनफर्मेशन मेसेज देख पाया क्योंकि फोन किचन में रह गया. बेशक ज़िंदगी ना मिले दुबारा और ना ही पिज़ा डिलिवरी की हाल्फ आवर गारंटी हो, और पिज़ा लेट आने पर भी कुछ हाथ ना आए पर पार्सल ज़रूर आयेगा दुबारा.

आज बेसन के लड्डू भी बनाए. आज भी याद है मम्मी कुछ ना कुछ मीठा ज़रूर बनाया कार्ति थी.

अच्छा है आदत सी हो गयी है अब फैन में रहने की और कूलर एक रुम से दूसरे रुम घुमाते हुए और कम से कम बिजली का इस्तेमाल करते हुए, सोलर लाइट का सदुपयोग करते हुए गुज़र बसर करने की. पर कभी कभी फ्रिज को खोलता हूँ तो एयर कंडिशनर की बड़ी याद आती है.

बिजली के बिल यक़ीनन कम आते हैं. - Anonymous

"मैंने माना की कुछ नहीं गालिब, मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है. सबज़ा-ओ-गुल कहाँ से आए हैं, अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है" -  मिर्ज़ा गालिब

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